श्रम गीत
गीत गाले तु गुनगुना ले
श्रम का भार तू भुला ले
जिसने गाया गुनगुनाया
भार हीन स्वयं को पाया
मल्लाह जब नांव चलता
चप्पू पानी भेदे जाता
दुखो को पीछे ठेलकर
गीत गाकर राह बनाता
गांव की या ब्रज की वनिता
छाछ घर मे वो बिलोती
मीत बनकर गीत पिरोती
दुविधायें पार कर जाती
मनोभाव शब्दो मे सजाते
गीत आनंद का वो बनाते
सुरीला गीतों का ये जादू
उत्सव उत्साह का बनाते
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