शनिवार, 26 जून 2021

मेरे बाबूजी

 बचपन है जो पचपन में फिरसे जीने का मन करता है

जिम्मेदारियो क् बोझ कम होजाता है

और लौटने का मन करता है

उन्ही गलियों चोबरो में

जँहा खेल खेलते ,रोज ही देर हो जाया करती थी

बस एक बार और के चक्कर मे

सावन के वो झूले जो बाबूजी रस्सी से बंधवा दिया करते थे

छोरियों लो झूलो झूल लेवो।

बड़ी तीज पर 16 झूलकर ही पानी पिया करते थे।सिंजारे के लिए रसगुल्ला लाना और हमारे मेहंदी लगे हाथ होने के कारण ,उनका अपने हाथ से खिलाना,बिना नागा हर सिंजारे में

दूसरे दिन मेहंदी का सुंदर लाल देखने के लिए दादी माँ भी कितनी उत्सुक रहती थी। मम्मी की खुशी देखते बनती थी जब हम बहने तैयार होकर आती थी

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