बचपन है जो पचपन में फिरसे जीने का मन करता है
जिम्मेदारियो क् बोझ कम होजाता है
और लौटने का मन करता है
उन्ही गलियों चोबरो में
जँहा खेल खेलते ,रोज ही देर हो जाया करती थी
बस एक बार और के चक्कर मे
सावन के वो झूले जो बाबूजी रस्सी से बंधवा दिया करते थे
छोरियों लो झूलो झूल लेवो।
बड़ी तीज पर 16 झूलकर ही पानी पिया करते थे।सिंजारे के लिए रसगुल्ला लाना और हमारे मेहंदी लगे हाथ होने के कारण ,उनका अपने हाथ से खिलाना,बिना नागा हर सिंजारे में
दूसरे दिन मेहंदी का सुंदर लाल देखने के लिए दादी माँ भी कितनी उत्सुक रहती थी। मम्मी की खुशी देखते बनती थी जब हम बहने तैयार होकर आती थी
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